गजलें और शायरी >> साये में धूप साये में धूपदुष्यन्त कुमार
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प्रस्तुत हैं गजलें .....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मैं स्वीकार करता हूँ ....
- कि ग़ज़लों को भूमिका की जरूरत नहीं होनी
चाहिए,
लेकिन एक कैफ़ियत इनकी भाषा के बारे में ज़रूरी है। कुछ उर्दू-दाँ दोस्तों
ने कुछ ऊर्दू शब्दों के प्रयोग पर एतराज किया है। उनका कहना है कि शब्द
‘शहर’ नहीं ‘शह्र’ होता है,
‘वज़न’
नहीं ‘वज़्न’ होता है।
- कि मैं उर्दू नहीं जानता लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझकर किया गया है। यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि ‘शहर’ की जगह ‘नगर’ लिखकर इस दोष से मुक्त पा लूँ, किंतु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है, जिस रूप में वे हिन्दी में घुल मिल गए हैं। उर्दू का ‘शह्न’ हिंदी में ‘शहर’ लिखा और बोला जाता है; ठीक उसी तरह जैसे हिंदी का ‘ब्राह्मण’ उर्दूं में ‘बिरहमन’ हो गया है और ‘ऋतु’ ‘रुत’ हो गई है।
- कि उर्दू और हिंदी अपने-अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के पास आती हैं तो उनमें फ़र्क कर पाना बड़ा मुश्किल होता है। मेरी नीयत और कोशिश यह रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूँ। इसलिए ये ग़जलें उस भाषा में कही गई हैं, जिसे मैं बोलता हूँ।
- कि ग़ज़ल कि विद्या एक बहुत पुरानी, किंतु सशक्त विद्या है, जिसमें बड़े-बड़े उर्दू महारथियों ने काव्य-रचना की है। हिंदी में भी महाकवि निराला से लेकर आज के गीतकारों और नए कवियों तक अनेक कवियों ने इस विधा को आजमाया है। परंतु अपनी सामर्थ्य और सीमाओं को जानने के बावजूद इस विधा में उतरते हुए मुझे आज भी संकोच तो है, पर उतना नहीं जितना होना चाहिए था। शायद इसका कारण यह है कि पत्र-पत्रिकाओ में इस संग्रह की कुछ ग़ज़लें पढ़कर और सुनकर विभिन्न वादों, रुचियों और वर्गों की सृजनशील प्रतिभाओं ने अपने पत्रों मन्तव्यों एवं टिप्पणियों से मुझे एक सुखद आत्म-विश्वास दिया है। इस नाते मैं उन सबका अत्यंत आभारी हूँ।
- ....और कमलेश्वर ! वह इस अफ़सानें में न होता तो ये सिलसिला शायद यहाँ तक न आ पाता। मैं तो-
- कि मैं उर्दू नहीं जानता लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझकर किया गया है। यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि ‘शहर’ की जगह ‘नगर’ लिखकर इस दोष से मुक्त पा लूँ, किंतु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है, जिस रूप में वे हिन्दी में घुल मिल गए हैं। उर्दू का ‘शह्न’ हिंदी में ‘शहर’ लिखा और बोला जाता है; ठीक उसी तरह जैसे हिंदी का ‘ब्राह्मण’ उर्दूं में ‘बिरहमन’ हो गया है और ‘ऋतु’ ‘रुत’ हो गई है।
- कि उर्दू और हिंदी अपने-अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के पास आती हैं तो उनमें फ़र्क कर पाना बड़ा मुश्किल होता है। मेरी नीयत और कोशिश यह रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूँ। इसलिए ये ग़जलें उस भाषा में कही गई हैं, जिसे मैं बोलता हूँ।
- कि ग़ज़ल कि विद्या एक बहुत पुरानी, किंतु सशक्त विद्या है, जिसमें बड़े-बड़े उर्दू महारथियों ने काव्य-रचना की है। हिंदी में भी महाकवि निराला से लेकर आज के गीतकारों और नए कवियों तक अनेक कवियों ने इस विधा को आजमाया है। परंतु अपनी सामर्थ्य और सीमाओं को जानने के बावजूद इस विधा में उतरते हुए मुझे आज भी संकोच तो है, पर उतना नहीं जितना होना चाहिए था। शायद इसका कारण यह है कि पत्र-पत्रिकाओ में इस संग्रह की कुछ ग़ज़लें पढ़कर और सुनकर विभिन्न वादों, रुचियों और वर्गों की सृजनशील प्रतिभाओं ने अपने पत्रों मन्तव्यों एवं टिप्पणियों से मुझे एक सुखद आत्म-विश्वास दिया है। इस नाते मैं उन सबका अत्यंत आभारी हूँ।
- ....और कमलेश्वर ! वह इस अफ़सानें में न होता तो ये सिलसिला शायद यहाँ तक न आ पाता। मैं तो-
हाथों में अंगारों को लिये सोच रहा था,
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए।
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए।
-दुष्यन्त कुमार
कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिये।
न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफ़र के लिए।
खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख़्वाब सही,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए।
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए।
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर को,
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए।
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं,
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।
वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको,
क़ायदे-कानून समझाने लगे हैं।
एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है,
जिसमें तहख़ानों से तहख़ाने लगे हैं।
मछलियों में खलबली है, अब सफ़ीने,
उस तरफ जाने से कतराने लगे हैं।
मौलवी से डाँट खाकर अहले मक़तब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं।
अब नयी तहज़ीब के पेशे-नज़र हम,
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं।
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा।
यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।
ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते,
वो सब-के-सब परीशाँ हैं, वहाँ पर क्या हुआ होगा।
तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुनकर तो लगता है,
कि इन्सानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा।
कई फ़ाके बिताकर मर गया, जो उसके बारे में,
वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा।
यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं,
ख़ुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा।
चलो, अब यादगारों की अंधेरी कोठरी खोलें,
कम-अज़-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा।
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिये।
न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफ़र के लिए।
खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख़्वाब सही,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए।
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए।
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर को,
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए।
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं,
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।
वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको,
क़ायदे-कानून समझाने लगे हैं।
एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है,
जिसमें तहख़ानों से तहख़ाने लगे हैं।
मछलियों में खलबली है, अब सफ़ीने,
उस तरफ जाने से कतराने लगे हैं।
मौलवी से डाँट खाकर अहले मक़तब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं।
अब नयी तहज़ीब के पेशे-नज़र हम,
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं।
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा।
यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।
ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते,
वो सब-के-सब परीशाँ हैं, वहाँ पर क्या हुआ होगा।
तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुनकर तो लगता है,
कि इन्सानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा।
कई फ़ाके बिताकर मर गया, जो उसके बारे में,
वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा।
यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं,
ख़ुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा।
चलो, अब यादगारों की अंधेरी कोठरी खोलें,
कम-अज़-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा।
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अपने मित्र के पी, शुंगलु को समर्पित, जिसने मतले का विचार दिया।
अपने मित्र के पी, शुंगलु को समर्पित, जिसने मतले का विचार दिया।
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